(वीरेन्द्र खागटा ) यही अपने आप में बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की हिला देने वाली घटना की पृष्ठभूमि में तैयार दुष्कर्म-रोधी (संशोधन) विधेयक को लोकसभा में पारित कराते समय दो सौ सांसद भी मौजूद नहीं थे। लेकिन इस पर बहस के दौरान विपक्षी सांसदों में से अधिकांश ने औरतों की असुरक्षा के जो तर्क गिनाए, वे तो और भी हैरान करने वाले हैं।
औरतों के बारे में उनकी सोच और बहस के उनके स्तर से पता ही नहीं चलता कि वे कानून बनाने वाली देश की सबसे बड़ी पंचायत के जिम्मेदार प्रतिनिधि हैं या पुरुषवर्चस्ववादी समाज के निरंकुश कापालिक। व्यवहार का यह दोहरापन इसलिए भी बहुत स्तब्ध करने वाला है कि इनमें से कइयों ने सोलह दिसंबर की घटना पर आंसू बहाते हुए औरतों को सुरक्षा मुहैया न करा पाने के लिए केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा किया था।
आज वही लोग बढ़ते यौन दुर्व्यवहार के लिए पाश्चात्य सभ्यता, टेलीविजन धारावाहिक, इंटरनेट और स्त्रियों की कथित उत्तेजक पोशाक को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। हद तो यह है कि विपक्ष की महिला सांसद भी सदन में पुरुषवर्चस्ववादी सोच के साथ खड़ी थीं। फिर स्त्री-विरोधी निर्देश देते धर्मगुरुओं, वेलेंटाइन डे पर लाठियां भांजने वाले कथित संस्कृति रक्षकों और मध्यकालीन फतवे जारी करते खाप पंचायतों का विरोध करने की गुंजाइश ही भला कहां रह जाती है!
क्या विडंबना है कि सर्वश्रेष्ठ सांसद का सम्मान पाने वाला एक शख्स लड़कियों का पीछा करने को न सिर्फ अपराध नहीं मानता, बल्कि उनका मानना है कि पुरुषों से यह अधिकार छीन लिया गया, तो प्यार ही खत्म हो जाएगा। यह वही हैं, जिन्होंने कुछ साल पहले संसद में महिलाओं के आरक्षण का विरोध करते हुए महिला सांसदों को परकटी कहा था!
सिर्फ यही नहीं कि कानून बनाने वालों को अपनी जिम्मेदारी का ध्यान नहीं है, वे यह भी भूल गए हैं कि दुनिया के सबसे मजबूत और पारदर्शी लोकतंत्र के जनप्रतिनिधियों के नाते उनकी स्त्री-विरोधी टिप्पणियों को पूरा देश देख-सुन रहा है। यह विधेयक बेशक अभी कानून की शक्ल नहीं ले पाया है, लेकिन समाज के शीर्ष स्तर पर औरतों के प्रति इस नजरिये को देखते हुए तो स्त्रियों की सुरक्षा के लिए सख्त कानून की जरूरत और भी बढ़ गई है।