हिंदुत्व और विकास का पैकेज

यह इत्तफाक नहीं है कि जिस दिन इलाहाबाद कुंभ में संगम किनारे भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह संघ परिवार के बीच अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का संकल्प जता रहे हों, ठीक उसी दिन दिल्ली में नरेंद्र मोदी अपने सुशासन और विकास के मॉडल की पैकेजिंग करें। ये दोनों घटनाएं भाजपा के अंतर्विरोधों के साथ उसकी भावी रणनीति की ओर इशारा कर रही हैं।

बेशक हिंदुत्व के मुद्दे ने एक समय भाजपा को ताकत दी थी, मगर अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री तभी बन पाए थे, जब पार्टी ने राम मंदिर के साथ समान आचार संहिता और कश्मीर में अनुच्छेद 370 की समाप्ति जैसे अपने तीन अहम मुद्दों को ठंडे बस्ते में डाल दिया था। इसके अलावा बीते ढाई दशकों में देश कहीं आगे निकल चुका है और आज आधे से ज्यादा मतदाता युवा हैं, जिनमें बड़ी संख्या वैसे छात्रों की है, जिन्हें नरेंद्र मोदी ने श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में संबोधित किया।

इन युवाओं को हिंदुत्व जैसे भावनात्मक मुद्दे के बजाय विकास के सपने दिखाकर लुभाया जा सकता है। मोदी यह जानते हैं, इसलिए उन्होंने पुरानी छवि के उलट विकास और सुशासन के मॉडल को एक शानदार पैकेज की तरह परोसा। उन्होंने जो कुछ वहां कहा, उससे उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के लिए दबाव और बढ़ सकता है।

मगर भाजपा की मुश्किल यह है कि वह ऐसी किसी घोषणा से हिचक रही है, क्योंकि एक तो पार्टी के भीतर प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार को लेकर काफी द्वंद्व है, दूसरी ओर सहयोगी दल भी मोदी के नाम पर तैयार नहीं दिख रहे हैं। दरअसल गुजरात में मिली सफलता को संघ परिवार एक मॉडल की तरह देख रहा है और उसे लगता है कि इसका आम चुनाव में लाभ मिल सकता है।

बहुत संभव है कि इलाहाबाद में जुटे संघ और विहिप के नेता राम मंदिर के मुद्दे के बाद मोदी के नाम के ऐलान के लिए भी दबाव बनाएं। पार्टी मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार भले न बनाए, मगर चुनावों में वह जनता के बीच उन्हीं के बनाए पैकेज के साथ उतरेगी, इसमें संदेह नहीं। पार्टी को कदाचित इसका एहसास होगा कि यह दोधारी तलवार पर चलने जैसा है, और फिर मोदी की स्वीकार्यता गुजरात से बाहर देश के दूसरे हिस्सों में अभी परखी जानी है।

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