संविधान से बड़ी नहीं खाप पंचायत

महिलाओं के खिलाफ मनमाने फरमान जारी करने वाली खाप पंचायतों को सर्वोच्च अदालत द्वारा आड़े हाथ लेने से एक बार फिर उनकी भूमिका को लेकर सवाल उठे हैं। शायद ऐसा पहली बार हुआ है, जब सर्वोच्च अदालत ने न केवल सर्व खाप पंचायतों के प्रतिनिधियों को बहस में आमंत्रित किया है, बल्कि उनका पक्ष भी जानना चाहा है। उत्तर भारत की खाप पंचायतें या दक्षिण भारत की कट्टा पंचायतें निश्चय ही हमारे सामाजिक ढांचे का महत्वपूर्ण अंग हैं, मगर हाल के दौर में उन्होंने सामाजिक समरसता मजबूत करने के बजाय तनाव ही अधिक पैदा किए हैं।

बल्कि देखा तो यह जा रहा है कि वे परंपराओं की दुहाई देकर समानांतर अदालतों जैसा व्यवहार कर रही हैं। वे प्रेम विवाह के खिलाफ हैं, उन्हें महिलाओं के पहनावे और उनके मोबाइल रखने, यहां तक कि देर शाम उनके घर से निकलने तक पर ऐतराज है। सर्वोच्च अदालत ने उनकी इसी भूमिका पर सवाल उठाया है। उसने पूछा है कि देश के नागरिकों को संविधान में मिले मौलिक अधिकारों का हनन करने वाली वे कौन होती हैं! खाप पंचायतों के जो पक्ष सामने आए हैं, उसके मुताबिक वे सगोत्रीय और एक ही गांव में विवाह के खिलाफ हैं और इसके लिए वे हिंदू विवाह अधिनियम में संशोधन की मांग भी कर रही हैं।

मगर, बात इतनी सीधी है नहीं, ऐसे ढेरों मामले मिल जाएंगे, जब खाप पंचायतों के फरमान के बाद अंतरजातीय विवाह करने वाले जोड़ों का जीना दूभर हो गया। बल्कि कई मामलों में तो उनकी हत्या तक कर दी गई। खाप पंचायतों की सामाजिक और राजनीतिक हैसियत का अंदाजा इसी से लग सकता है कि अदालत में पेश हुए उत्तर प्रदेश और हरियाणा के आला पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों ने उनका बचाव ही किया।

यह ठीक है कि ऑनर किलिंग जैसे किसी मामले में खाप पंचायतों का सीधा हाथ नहीं है, मगर जब वे कोई फरमान जारी करती हैं, तो संबंधित परिवार का क्या हाल होता है, यह बताने की जरूरत नहीं है। अच्छा तो यह होता कि वे कानून को अपने हाथ में लेने के बजाय कन्या भ्रूणहत्या और दहेज जैसी कुरीतियों के खिलाफ आवाज बुलंद करतीं, जैसा कि कुछ मामलों में नजर भी आया है और जिसकी सर्वोच्च अदालत ने सराहना भी की है।

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